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कविता

निष्ठाग की गंगा

सुमेर सिंह शैलेश


जिसने स्‍वयं पचाकर विष को,
बाँट दिया अमृत औरों में
कर्ज आज भी चढ़ा हुआ है,
अपनी इन नस-नस पोरों में।

अपनी खोट दूर करने को,
तप कर हमें खरा होना है
किसी प्रतिक्रिया के बदले,
सच्‍चाई और साहस बोना है
देखो हम गुमराह न हों
कुछ बहके-बहके से शोरों में।

हमें अभावों विपदाओं को
लोरी गीत सुनाना होगा
अपनी इस धरती की माटी
कंचन हमें बनाना होगा
अपनी मुक्ति नहीं बाँटेंगे
कुछ झूठे दावेदारों में।

संस्‍कृति का विरवा अपने
आँगन में एक लगाना होगा
मानवता की सच्‍ची मेहँदी
सीमा के हाथ रचाना होगा
लहराए पलकों के भीतर
निष्‍ठा की गंगा कोरों में।

 


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